यह दुनिया बड़ी ही अरोचक होती, यदि इसमें रंग भरने वाले कुछ पात्र हमारी जिंगागी के सफर में हमारी राह नहीं काटते। इनके बगैर ज़िंदगी एकरंगी रह जाती है।
मेरे नौकरीपेशा जीवन का करीब एक दशक गुज़रा होगा और मै एक स्थानीय इकाई का प्रमुख अधिकारी था। एक विद्युत वितरण संस्थान में शायद कर्मचारी उड़ान तो ऊंची ना भर सकें, किन्तु रोचक चरित्रों से मुलाकात ज़रूर होती रहती है। ये कर्मचारी,आला अफसर, सरकारी अधिकारी, उपभोक्ता किसी भी वर्ग से उत्पन्न हो सकते हैं।
यह वक़्त पिछली शताब्दी के आखरी दशक के बीचोंबीच का था। पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों का बोलबाला था। वामपंथी जीवन के हर पहलू में घुस चुके थे। समाज, उद्योग, राजनीति, साहित्य...... कोई भी क्षेत्र इनसे अछूता ना था। इनको क्षमता में रहते हुए करीब ढ़ाई दशक हो चुके थे, और इस वक़्त का इन्होंने पूरा फायदा उठाया था। बड़ी ही कुशलता से साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग करते हुए, वामपंथी किसी भी संस्था के ऊपर से नीचे तक कब्ज़ा कर चुके थे।
पहले की तरह अब उन्हें हिंसा की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, पर हिंसा से वह अभी भी नहीं कतराते थे। अब उनकी बातों में शालीनता तो थी, पर भाव में सज्जनता न थी। अगर इससे काम नहीं हुआ तो वह पुरानी गुंडागर्दी सामने आते देर नहीं लगती थी।
ऐसी स्थिति में, मेरे संस्थान में दो श्रमिक संघ (Trade Unions) मान्यता प्राप्त थे। एक तो मार्क्सवादी संघ था जो कि काकी ताकतवर था और दूसरी थी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की - जो एक ज़माने में काफी मजबूत हुआ करती थी पर उसका प्रभाव क्रमशः घटता जा रहा था।
इन दोनों संघों में कई भिन्नतायें थीं।
ज़्यादातर मार्क्सवादी संघ के सदस्य बंगाली हुआ करते थे और CPI
के सदस्य अधिकतर बिहार और उत्तर प्रदेश के मूल निवासी होते थे। दोनों संघ की मानसिकता में भी काफी अंतर था पर ऊपरी तहों को हटा दिया जाता तो यह साफ था कि असली मुद्दा ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने का था। पर तरीका और दलील भिन्न हुए करती थी।
मार्क्सवादी कभी भी प्रत्यक्ष रूप से ज़्यादा पैसों की मांग नहीं करते थे। पर उसी काम को टुकड़ों में भाग कर, हर भाग के लिए अलग राशि की अदायगी चाहते थे और उसके लिए घंटों तक वितर्क करने को तैयार रहते थे। और अधिकतर वह इसे वसूल करने में सक्षम भी रहते थे।
कम्युनिस्टों का तरीका और था। वह इन बारीकियों में नहीं घुसते थे। उनका कहना साफ था - जो काम करवाना है, कर देंगे पर रकम पहले से तय हो जानी चाहिए। उसने दलील, तर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहती थी। और अधिकारियों की दलील सुनने को भी तैयार नहीं रहते थे। पर एक बार सहमति हो गई तो फिर काम में कोई कोताही भी ना करते थे और जितना भी काम दिया जाए वह खत्म करने के बाद ही वापस लौटते थे।
दोनों संघों में एक और भिन्नता भी थी। मार्क्स वादियों की बातचीत करने की शैली में शालीनता तो थी पर सभ्यता न थी। अगर उनकी बात ना बने तो अधिकारियों की बेइज्जती करने में वह ज्यादा देर ना करते थे। और उन्हें किसी बात का भय तो था नहीं क्योंकि हर संयंत्र के कई आला अफसर उनकी जेब में थे।
कम्युनिस्टों का तरीका इससे बिलकुल विपरीत था। तर्क वितर्क के समय आवाजें ऊंची हो सकती थी किंतु अधिकारियों की बेइज्जती वह कभी न करते थे। शायद इसीलिए कई अधिकारी उनकी इस सभ्यता को नरमी समझते थे।
इस सतही शिष्टता के छलावे के कारण ज्यादातर सुपरवाइजर भी मार्क्सवादी संघ के ही सदस्य थे और मार्क्सवादीयों की नीति के अनुसार वह कम्युनिस्टों के मजदूर दल पर ज्यादती करने से बाज भी नहीं आते थे।
दोनों संघों के सदस्यों के बीच हमेशा तनाव तो बना रहता था किंतु एक ऊपरी शांति का दिखावा रहता था क्योंकि मुकाबला बराबरी का ना था। वैसे तो राजनीति में मार्क्सवादी हो और कम्युनिस्टों का गठबंधन था पर चलती बंगाल में मार्क्सवादियों की ही थी।
पर यह तो संघों का चरित्र था। उनके सदस्यों का चरित्र भांति भांति का होता था और यह संघों के चरित्र से बिल्कुल विपरीत भी हो सकता था।
ऐसी स्थिति में चलिए हम चलते हैं अपनी इस कहानी के नायक या खलनायक की ओर। नसीर खान बिहार से आया हुआ ५७/ ५८ साल का एक मिस्त्री जो कि कम्युनिस्टों का सदस्य था और साधारण राय के अनुसार बेहद ही भ्रष्टाचारी था। भ्रष्टाचारी होने के साथ उसके बारे में लोगों की एक बहुत बड़ी शिकायत यह भी थी कि वह भ्रष्टाचार के पैसे किसी के साथ बांटता भी नहीं था।
शिकायतें तो बहुत आईं पर वह इतना शातिर था कि उसे कभी रंगे हाथ पकड़ा ना गया। इसके अलावा उसकी लोगों से झगड़ने की आदत थी पर उसकी खराब जबान के कारण कोई उस से उलझना नहीं चाहता था। उसे यह भी मालूम था की अगर वह फंसता है तो उसे बचाने में सक्षम केवल अधिकारीगण ही हो सकते हैं इसलिए वह कभी भी किसी अधिकारी के साथ खराब व्यवहार ना करता था।
पर एक दिन तो उसने हद ही कर दी। अभी सुबह के करीब 9:30 ही बजे होंगे कि मेरे दफ्तर में टेलीफोन की घंटी बज उठी। अरुण राय, जो नसीर का सुपरवाइजर था और मार्क्सवादी यूनियन का नेता भी था दूसरी तरफ लाइन पर था। अरुण राय उत्तेजित कभी नहीं होता था किंतु उसकी आवाज से यह साफ था कि कोई अप्रिय घटना घटी थी। उसने मुझे साइट ऑफिस में आने का अनुरोध किया और यह भी बताया कि जो मेरे अधीन अफसर थे, मामला उनके काबू के बाहर जा चुका था।
जब मैं साइट ऑफिस पहुंचा तो देखा की वातावरण में काफी तनाव था। मुझे बताया गया कि आज सुबह-सुबह जब नसीर से पिछले दिन की कार्यवाही के बारे में पूछा गया तो उसने अपने सुपरवाइजर को भद्दी-भद्दी गालियां दीं। चूंकि उसका सुपरवाइजर अरुण राय खुद था और वह नेता भी था तो उसने बात को अपने हाथ में लेने से बेहतर यह समझा कि इस बात को सुलझाने का दायित्व अधिकारियों के पल्ले सौंप दिया जाए। एक कारण यह भी था की नसीर की जुबान के साथ वह उलझना नहीं चाहता था।
मैंने अरुण राय से पूछा कि क्या-क्या गालियां नसीर ने दी थीं और जब अरुण गाय ने विस्तार से मुझे शब्द प्रति शब्द गालियां बताईं तो बड़ी मुश्किल से मैं अपनी हंसी रोक पाया। गंभीर चेहरा बनाए हुए मैंने नसीर को बुलाया। नसीर तो ऐसे प्रस्तुत हुआ जैसे कुछ हुआ ही ना हो और आते ही एक शानदार सलाम ठोका।
"तुमने राय बाबू को गालियां दीं?" मैंने पूछा।
"जी हां! साहब।" सत्यानाश! यह तो खुलेआम स्वीकार कर रहा था!
"तुमने ऐसा क्यों किया?" मेरा अगला सवाल स्वाभाविक था।
"साहब, इच्छा तो कई दिनों से थी, हो आज रोक नहीं पाया।" तर्क तो अकाट्य था।
"कर्मों ऐसी इच्छा हो रही थी?" मैं भी कहां छोड़ने वाला था।
"अरे साहब, आप तो इन शैतानो को तो जानते ही हैं। बदमाश के जड़ हैं, दिमाग में केवल खुराफात भरा है।" नसीर के मुंह से ये बातें अजीब लग रहीं थीं।
उल्टा चोर कोतवाल को डांटे? इन मार्क्सवादियों के लिये कोतवाल शब्द का प्रयोग थोड़ा अजीब लगेगा, पर कोई सटीक मुहावरा मिल नहीं रहा था।
"रोज रोज हिसाब लेने लगते हैं। थोड़ी ही सामान के इस्तेमाल में कमी मिले, तो बिल्कुल सर पर ही चढ़ जाते हैं। इंसान के माफिक व्यवहार करना सीखा ही नहीं है।" नसीर की शिकायतें जारी थीं।
"तो हिसाब लेना उनका काम है इसमें गलत क्या है?" मैंने नसीर को बीच में ही टोका।
"अरे साहब आप भी क्या अजीब बात करते हैं? किसी चोर को कोई हिसाब देता है क्या?" नसीर में नया तर्क दागा।
"चोर? तुमने अपने सुपरवाइजर को चोर कहा? शर्म नहीं आती है ?" मैंने उसे बीच में ही रोका। यह तो स्थिति को और खराब करने वाला था।
"साहब चोर को चोर नहीं तो और क्या कहूं?" मैं छोड़ने वाला नहीं था।
"तुम्हें अपने साहब की इज्जत करनी चाहिए और तुम उन पर बेबुनियाद इल्जाम लगाए जा रहे हो?" मैंने नसीर को सख्ती से टोका।
"साहब आप नहीं समझेंगे, पर मुझे हर चीज मालूम है।"
"हां सारी दुनिया अनजान है और तुम्हें सब मालूम है? तुम कोई देवता, पैगंबर हो क्या?" मैं बात अब अधिक बढ़ाना नहीं चाहता था।
"हां हुजूर मैं पैगंबर ही तो हूं। लोग मुझे पागल कहते हैं वह अलग बात है।" उसने नयी लिख पकड़ ली।
"पागल? तुम्हें पागल किसने कहा?" मैंने कह तो दिया, पर मन ही मन मैंने उसे पागल, बदमाश,......... कई सारी उपाधियां दे रखी थी।
"साहब मैं झूठ नहीं बोलता हूं। मेरे पास सर्टिफिकेट भी है।" नसीर ने नया बम दागा।
"सर्टिफिकेट? पागलपन का सर्टिफिकेट? कहां है दिखाओ।" इस झूठ को मैं बिना पकड़े छोड़ने वाला ना था। कोई पागलपन का सर्टिफिकेट भी लेकर घूमता है क्या? और कोई डॉक्टर अपने मरीज को पागलपन का सर्टिफिकेट देता है क्या?
पर नसीर तो नसीर ही था। उसने ऐसी स्थिति की भी तैयारी कर रखी थी। जेब में हाथ डाला और एक पुराना सा पर्चा निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिया।
मैंने पर्ची को खोला। यह बांगड़ हस्पताल के डॉक्टर का पर्चा था। पर्चा कम से कम पांच छः साल पुराना था । उसमें मैंने डॉक्टर के नाम के नीचे देखा उपाधि में साइकैटरिस्ट (मनोवैज्ञानिक चिकीत्सक) लिखा हुआ था और कुछ मानसिक बीमारियों का ब्यौरा भी दिया हुआ था। कुछ दवाइयां भी लिखी हुई थी।
कुछ वक्त लिए तो मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं आगे क्या करूं। पर मैंने अपने आप पर काबू पाया और उससे बताया " शायद तुम्हें फिर से यह दौरे आने लगे हैं। इसका इलाज करने के लिए तुम्हें समय देता हूं और तुम्हें इसी मुहूर्त सस्पेंड करता हूं। तुम जाकर कार्यालय के डॉक्टर से मिलो और उनसे इलाज करवाने के लिए परचा लिखवा लो। इसके बाद तुम तभी लौटना जब तुम पूरी तरह मानसिक रूप से स्वस्थ हो।"
नसीर मेरी तरफ देखा, मुस्कुराया, सलाम किया और चलता बना।
अगर उसने पागलपन का पर्चा न दिखाया होता तो उस पर कार्यवाही होती और वेतन में शायद कटौती की जाती। पर उसने अपने पागलपन का सबूत देकर अपने आप को इन सारी चीजों से बचा लिया था। हां! उसे कुछ दिन घर पर रहना पड़ता और वह फिर से बिना किसी नुकसान के काम पर वापस आ सकता था।
हर कोई यह जानता था कि वह पागल तो बिल्कुल भी नहीं है। शैतान जरूर है। और इसी खुराफाती दिमाग ने उसे पहले से यह आगाह कर दिया होगा कि एक पागलपन के पर्चे कि उसे किसी ने किसी दिन जरूरत होगी। इस पर्चे को न केवल उस ने बनवाया, पर बहुत ही सहेज कर रखा था केवल ऐसी ही आपदा से बचने के लिए।
शैतानी दूरदर्शिता की ऐसी मिसाल कम देखने को मिलती है!
The story shows your presence of mind and instant reply.
ReplyDeleteUnion leaders are habitual of playing such tricks. Under such circumstance Win Win situation is best.